Sunday, October 29, 2017

तिज्जो, गुड्डे-गुड़िया का ब्याह और दोग्घड

तिज्जो, गुड्डे-गुड़िया का ब्याह और दोग्घड
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हरियाली तीज जिसे गंवई भाषा में “तिज्जो” कहा जाता है। गाँव में लड़कियों द्वारा बड़े जोश और उत्साह के साथ मनाई जाती थी। तिज्जो वाले दिन सुबह से ही लड़कियों के समूह नए-नए कपड़े पहनकर गाँव की गलियों मे इधर से उधर घूमते हुए दिखाई पड्ने लगते थे। शिवाले मे स्कूल मे सुबह से ही लड़कियां तिज्जो खेलने के लिए इकट्ठा होने लगती थी। उस समय गाँव का वातावरण भी बहुत शुद्ध था। गाँव की हर लड़की की सुरक्षा और सम्मान की गारंटी सुनिश्चित करना हर व्यक्ति की तयशुदा नैतिक जिम्मेदारी थी। शिवाले वाले प्राथमिक स्कूल मे इकट्ठा होकर लड़कियां दो गुटो मे बंटकर तिज्जो खेलती थी। लगभग 15-15 लड़कियों के गुट तिज्जो खेलते थे। आमने सामने एक निष्चित दूरी पर लड़कियां एक दूसरे के हाथ मे अपना हाथ फँसाकर एक सघन मानव श्रंखला बनाकर दोनों हाथों से हथेलियाँ बजाते हुए और तिज्जो के गीत गाते हुए एक दूसरे की और आती थी। बिलकुल सामने तक आने के बाद यह पूरी पंक्ति उल्टे पैरों से पीछे उसी स्थान तक जाती थी जहां से उन्होने चलना शुरू किया था। तेज आवाज मे लड़कियों के “तिज्जो-गान” से पूरा माहौल गुंजायमान रहता था, वातावरण मे गूँजते खुशियों के गीत मानो पूरे गाँव की प्रसन्नता का उदघोष करते थे। सावन महीना शुरू होते हुए गाँव मे खुशियों और उल्लास की डालियाँ लहराने लगती थी। हर आँगन, हर पेड़ और हर बरामदे, दहलीज मे झूले पड़ जाते थे। हर तरफ छोटे बच्चे और लड़कियां झूला झूलते हुए दिखाई पड़ती थी।दोपहर तक लड़कियां अपना घर का सारा काम-काज निपटा कर बारी-बारी से पूरे सावन अपनी सहेलियों के घर झूला झूलने जाती थी। पहले दिन यह तय हो जाता था कि कल अमुक सहेली के घर पर झूला झूलेंगे। लड़कियां झूले मे इस प्रकार बैठती थी कि एक के पैर दूसरी के झूले से सटे होते थे। अक्सर शरीर से मजबूत लड़कियां हम जैसे छोटे बच्चों को अपने पैरों से बने “दुसंग” पर बैठाकर अपने साथ झूला देती थी। हमे भी झूले का आनंद और बहनो का प्यार एक साथ मिल जाता था।दो लड़कियां आमने सामने की और से झूले को हिलाकर दूसरी और सहारा देती थी। अन्य लड़कियां झूले के चारों और घेरा बनाकर सावन के गीत गाती थी। “ हरियाला बनना झुक आया बाग मै जी, इंदर राजा झुक आए बाग मै जी” तिज्जो के मधुर गीत खुशियों की मिश्री कानों मे घोलते थे। आधा सावन बीतने पर तिज्जो का त्योंहार आता था। हम स्कूल की दीवारों पर बैठकर “तिज्जो-उत्सव” का आनंद लेते थे।
दोग्घड
सावन मे छोटे से लेकर बड़े तक सभी गाँव-वासी आसमान की और देखते रहते थे। कभी कभी “बार (शनिवार) की झड़ी लग जाती थी तो लगातार दसों दिन बारिश होती रहती थी लेकिन कभी लोग बारिश को तरस जाते थे। बारिश के लिए भगवान को खुश करने के लिए लोग तरह-तरह के जतन करते थे। पूरे गाँव मे जग (यज्ञ किया जाता था, लोगों को भोजन कराया जाता था।)  दी जाती थी ताकि भगवान प्रसन्न होकर बारिश कर दे।कभी कभी जग के बाद बारिश हो जाती थी तो लोग मानते थे कि भगवान प्रसन्न हो गए है। बारिश न होने की स्थिति मे लोग गाँव मे घूमकर यह देखते थे कि किसी ने अपने घर की छत पर बिटौड़ा तो नहीं बना रखा है। गाँव मे आज भी छत पर बिटौड़ा रखने को गलत माना जाता है। यदि ऐसा पाया जाता था तो लोग छत पर बिटौड़ा रखने वाले परिवार को नसीहत करके बिटौड़ा उतरवा देते थे। गाँव की लड़कियां बारिश के लिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए अनोखे उपाय करती थी। अक्सर गाँव मे लड़कियां कपड़े के गुड्डे-गुड़िया बनाकर खेलती थी। कोई लड़की गुड्डा बनती थी, तो कोई गुड़िया तो कोई दोनों। लड़कियां आपस मे गुड्डे-गुड़ियाँ की शादी भी करती थी। एक लड़की का गुड्डा तो दूसरी की गुड़िया आपस मे शादी करती थी। किसी एक लड़की को लड़के का वेश बनाकर दूल्हा बनाया जाता था, गुड्डे की बारात निकलती थी। बारात मे सारी लड़कियां जाती। बाकायदा, छोटी-छोटी कूल्हो मे दाल-चावल के रूप मे खाना पकाया जाता था। प्रसाद के रूप मे थोड़ा थोड़ा सबको मिलता था। अक्सर हमारे भी हाथ दो-चार चावल के दाने लग जाते थे। उसका स्वाद गज़ब होता था। इस पर भी बारिस न होती तो लड़कियां दो-चार दिन बाद गुड्डे-गुड़ियाँ को मरा हुआ मानकर, गाँव की "भेंटों" पर जाकर उनका अंतिम संस्कार करती, ज़ोर ज़ोर से दहाड़ मार-मार कर रोती। सुत्तक निकालने के लिए सारी लड़कियां मंदिर जाकर सिर धोती थी। शिवाले स्थित शिवलिंग को कुएं से पानी निकाल-निकाल कर चोटी तक डुबोती थी। इस काम मे उन्हे घंटों लग जाते थे, क्योंकि इसका नियम यह था का मंदिर के गर्भग्रह के जल निकास मार्ग को भी बंद नहीं करना होता था। मंदिर मे जल भरने के बाद का काम बड़ा ही रोचक होता था। इसके बाद लड़कियां एक हांडी मे कीचड़ भर लेती थी जिसे वह दोग्घड कहती थी। लड़कियां इस दोग्घड को किसी ऐसी महिला के घर मे दीवार से फेंक कर फोड़ती (तोड़ती) थी जो ऐसा होने के बाद खूब झगड़ा करती हो। हमारे पड़ोस मे खजानी नामक महिला अक्सर लड़कियों के लिए सटीक निशाना होती थी। दोग्घड फूटने के बाद खजानी सब लड़कियों को खूब कोसती थी, खूब झगड़ा करती थी। ऐसा करने से कभी कभी हफ्ते भर के अंदर बारिश हो जाती थी तो लड़कियां मान लेती थी कि उनकी मेहनत कामयाब हो गई है।  
आज न लड़कियों मे तिज्जो के प्रति वह उत्साह है और न ही गाँव मे उस तरह का वातावरण। तिज्जो का रोमांच हमारे समय के साथ ही समाप्त हो गया लगता है।
हरियाली तीज व्रत कथा:
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तिज्जो को हरियाली तीज कहा जाता है और यह श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है।इस दिन महिलायें व्रत रखती है और तिज्जो की कथा सुनती हैं।यह दिन शिव पार्वती के पुनर्मिलन की याद में मनाया जाता है।महिलाएं इस दिन निर्जल उपवास करती हैं एवं शिव-पार्वती जी की पूजा एवं कथा वाचन/श्रवण करती हैं।  माना जाता है कि इस कथा को भगवान शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म के बारे में याद दिलाने के लिए सुनाया था। कथा कुछ इस प्रकार है--

शिवजी कहते हैं: हे पार्वती।  बहुत समय पहले तुमने हिमालय पर मुझे वर के रूप में पाने के लिए घोर तप किया  था। इस दौरान तुमने अन्न-जल त्याग कर सूखे पत्ते चबाकर दिन व्यतीत किया था। मौसम की परवाह किए बिना तुमने निरंतर तप किया। तुम्हारी इस स्थिति को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ थे. ऐसी स्थिति में नारदजी तुम्हारे घर पधारे।

जब तुम्हारे पिता ने उनसे आगमन का कारण पूछा तो नारदजी बोले – ‘हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।’ नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- हे नारदजी। यदि स्वयं भगवान विष्णु मेरी कन्या से विवाह करना चाहते हैं तो इससे बड़ी कोई बात नहीं हो सकती। मैं इस विवाह के लिए तैयार हूं।"

शिवजी पार्वती जी से कहते हैं, "तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी, विष्णुजी के पास गए और यह शुभ समाचार सुनाया। लेकिन जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हें बहुत दुख हुआ। तुम मुझे यानि कैलाशपति शिव को मन से अपना पति मान चुकी थी।

तुमने अपने व्याकुल मन की बात अपनी सहेली को बताई। तुम्हारी सहेली से सुझाव दिया कि वह तुम्हें एक घनघोर वन में ले जाकर छुपा देगी और वहां रहकर तुम शिवजी को प्राप्त करने की साधना करना। इसके बाद तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि यदि विष्णुजी बारात लेकर आ गए और तुम घर पर ना मिली तो क्या होगा। उन्होंने तुम्हारी खोज में धरती-पाताल एक करवा दिए लेकिन तुम ना मिली।

तुम वन में एक गुफा के भीतर मेरी आराधना में लीन थी। भाद्रपद तृतीय शुक्ल को तुमने रेत से एक शिवलिंग का निर्माण कर मेरी आराधना कि जिससे प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारी मनोकामना पूर्ण की। इसके बाद तुमने अपने पिता से कहा कि ‘पिताजी,  मैंने अपने जीवन का  लंबा समय भगवान शिव की तपस्या में बिताया है।  और भगवान शिव ने मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे स्वीकार भी कर लिया है। अब मैं आपके साथ एक ही शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह भगवान शिव के साथ ही करेंगे।" पर्वत राज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हें घर वापस ले गये। कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि – विधान के साथ हमारा विवाह किया।”

भगवान् शिव ने इसके बाद बताया कि – “हे पार्वती! भाद्रपद शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूं। भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेंगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

Saturday, October 21, 2017

अहोई अष्टमी

नवभारत टाइम्स
आचार्य ज्योतिवर्धन शास्त्री

अहोई अष्टमी व्रत कथा
प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपापोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैवयोग से उसी जगह एक सेहू की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल से सेहू के बच्चे को चोट लग गई जिससे सेहू का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था! वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई।

कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात् दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जानबूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अनजाने में उससे एक सेहू के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई।

यह सुनकर आस-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेहू और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्रों की प्राप्ती हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।

वैसे कुछ क्षेत्रों में अहोई अष्टमी की दूसरी कथा भी प्रचलित है, जो मथुरा स्थित राधाकुण्ड में स्नान करने से संतान-सुख की प्राप्ति के संदर्भ में है। इस कथा के अनुसार बहुत समय पहले एक नगर में चन्द्रभान नामक साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका बहुत सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न, सती साध्वी, शीलवन्त चरित्रवान तथा बुद्धिमान थी। उसके यहां कई पुत्र-पुत्रियां हुए परंतु वे सभी बाल अवस्था में ही परलोक सिधार जाते थे। दोनों पति-पत्नी संतान न रह जाने से व्यथित रहते थे। दोनों प्रतिदिन मन में सोचते कि हमारे मर जाने के बाद इस अपार धन-संपदा को कौन संभालेगा।

एक बार उन दोनों ने निश्चय किया कि वनवास जाकर शेष जीवन प्रभु-भक्ति में व्यतीत करें। इस प्रकार दोनों अपना घर-बार त्यागकर वनों की ओर चल दिए। रास्ते में जब थक जाते तो रुक कर थोड़ा विश्राम कर लेते और फिर चल पड़ते। इस प्रकार धीरे-धीरे वे बद्रिका आश्रम के निकट शीतल कुण्ड जा पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने निराहार रह कर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार निराहार व निर्जल रहते हुए उन्हें सात दिन हो गए तो आकाशवाणी हुई कि तुम दोनों प्राणी अपने प्राण मत त्यागो। यह सब दुख तुम्हें तुम्हारे पूर्व पापों से भोगना पड़ा है। यदि तुम्हारी पत्नी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजन करे तो अहोई देवी प्रसन्न होकर साक्षात् दर्शन देंगी। तुम उनसे दीर्घायु पुत्रों का वरदान मांग लेना। व्रत के दिन तुम राधाकुण्ड में स्नान करना।

चन्द्रिका ने आकाशवाणी के बताए अनुसार विधि-विधान से अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजा-अर्चना की और तत्पश्चात राधाकुण्ड में स्नान किया। जब वह स्नान इत्यादि के बाद घर पहंचे तो उस दम्पत्ति को अहोई माता ने साक्षात् दर्शन देकर वर मांगने को कहा। साहूकार दम्पत्ति ने हाथ जोड़कर कहा, "हमारे बच्चे कम आयु में ही परलोक सिधार जाते है। आप हमें बच्चों की दीर्घायु का वरदान दें। "तथास्तु!" कहकर अहोई माता अंतर्ध्यान हो गईं। कुछ समय के बाद साहूकार दम्पत्ति को दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति हुई और वे सुखपूर्वक अपना गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।

वैसे यह भी मान्यता है कि अहोई अष्टमी के दिन पेठे का दान किया जाना चाहिए।

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कार्तिक कृष्ण पक्ष में तिथि त्योहारों की भरमार रहती है जिसमें करवा चौथ और अहोई अष्टमी महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले विशेष दो पर्व हैं। जिनको मनाते हुए महिलाएँ जहाँ शास्त्रीय एवं लोक रीतिपूर्वक व्रत उपवास करती हैं वहीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा इन्हें उत्सव का रूप प्रदान करती हैं। इन दोनों उत्सवों में जहाँ परिवार के कल्याण की भावना भरी हुई होती है वहीं सास के चरणों को तीर्थ मानकर उनसे आशीर्वाद लेने की प्राचीन परंपरा आज भी दिखाई देती है।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी अहोई अथवा आठें कहलाती है। इस महीने यह व्रत शनिवार 30 अक्टूबर को मनाया जाएगा। वस्तुतः यह व्रत दीपावली से ठीक एस सप्ताह पूर्व आता है। कहा जाता है इस व्रत को संतान वाली स्त्रियाँ करती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अहोई अष्टमी का व्रत छोटे बच्चों के कल्याण के लिए किया जाता है, जिसमें अहोई देवी के चित्र के साथ सेई और सेई के बच्चों के चित्र भी बनाकर पूजे जाते हैं।

कैसे करें अहोई व्रत :-जिन स्त्रियों वह व्रत करना होता है वह दिनभर उपवास रखती हैं। सायंकाल भक्ति-भावना के साथ दीवार अहोई की पुतली रंग भरकर बनाती हैं। उसी पुतली के पास सेई व सेई के बच्चे भी बनाती हैं। आजकल बाजार से अहोई के बने रंगीन चित्र कागज भी मिलते हैं। उनको लाकर भी पूजा की जा सकती है।

संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है। पूजन से पहले जमीन को स्वच्छ करके, पूजा का चौक पूरकर, एक लोटे में जलकर उसे कलश की भांति चौकी के एक कोने पर रखें और भक्ति भाव से पूजा करें। बाल-बच्चों के कल्याण की कामना करें। साथ ही अहोई अष्टमी के व्रत कथा का श्रद्धा भाव से सुनें।

इसमें एक खास बात यह भी है कि पूजा के लिए माताएँ चाँदी की एक अहोई भी बनाती हैं जिसे बोलचाल की भाषा में स्याऊ भी कहते हैं और उसमें चाँदी के दो मोती डालकर विशेष पूजन किया जाता है। जिस प्रकार गले में पहनने के हार में पैंडिल लगा होता है उसी प्रकार चाँदी की अहोई डलवानी चाहिए और डोरे में चाँदी के दाने पिरोने चाहिए। फिर अहोई की रोली, चावल, दूध व भात से पूजा करें।

जल से भरे लोटे पर सातिया बना लें, एक कटोरी में हलवा तथा रुपए का बायना निकालकर रख दें और सात दाने गेहूँ के लेकर अहोई माता की कथा सुनने के बाद अहोई की माला गले में पहन लें, जो बायना निकाल कर रखा है उसे सास की चरण छूकर उन्हें दे दें। इसके बाद चंद्रमा को जल चढ़ाकर भोजन कर व्रत खोलें।

इतना ही नहीं इस व्रत पर धारण की गई माला को दिवाली के बाद किसी शुभ अहोई को गले से उतारकर उसका गुड़ से भोग लगा और जल से छीटें देकर मस्तक झुकाकर रख दें। सास को रोली तिलक लगाकर चरण स्पर्श करते हुए व्रत का उद्यापन करें।

Wednesday, November 2, 2011

खादर के लोकगीत-५

खादर के लोकगीत-५

कौंचा चिमटा और नक्चुन्ड्डी
तरनाल लगा लै नै..
हे आजा रै बागड़ो, तो के कुछ ले री सै ?
हो हाथी घोड़े हम न लेन्दे..
तुड़ा दे दिए..
गऊ के जाये भुक्खे चौधरी,
तू गैरा दे दिए.

आजा रै बागड़ो ,
मै गेंठ लगा दूंगा.
हो छोड़ चौधरी, छोड़ चौधरी गड्डे जै लिए,,

गड्डे जै लिए दूर चोधरी
मै कित सै टोहुंगी ?
हो गड्डों का लारा छोड़ बागड़ो .
मै शहर घुमा दूंगा.
हो घूम घाघरे छोड़ बागड़ो
मै साढ़ी लै दूंगा.
हो जुत्ती चप्पल छोड़ बागड़ो
मै सैंडल ला दूंगा.
धरती का सोणा छोड़ बागड़ो
मै बैड ला दूंगा.
कौंचा चिमटा...

कुंवर सत्यम..

यह गीत मेरी पुस्तक " खादर संस्कृति" का संकलित अंश है. यह भारतीय कोपी राइट एक्ट के अंतर्गत मेरे नाम से सुरक्षित है .इसका किसी भी अन्य रूप में प्रयोग वर्जित है.सन्दर्भ के लिए मेरी लिखित अनुमति आवश्यक है..
धन्यवाद.

Wednesday, September 28, 2011

खादर क्षेत्र के हास्य लोक गीत-४


खादर क्षेत्र के हास्य लोक गीत-४

मै भरण गई जल नीर,
कुँए पै परदेशी.
हो छोरी तन सा नीर पिलै दै.
मै कद का फिरूँ तिसाया.. हो नोटंकी .
हो थोडा सा परे नै होले हो ,
मेरी छींट लगै सैढी पै हो परदेशी.

तो कोण से खेत का रोड़ा ,
मै असल गोप केले की हो परदेशी.

हो तो कोण सी गली का पत्थर ,
मै असल ईंट चोबारे की हो परदेशी.
तो कोण से  खेत का गन्ना ,
मै असल कली फुल्लो की हो परदेशी

मै खेत्तो रै खेत्तो घुम्या,
न मिली गोप केले की..हो नोटंकी .
मै गलियों रै गलियों फिरग्या,
न मिली ईंट चोबारे की हो नोटंकी.

तो मेरी रै गेल्लो चलिए.
मेंरै इकसठ रैणी है.,
मै उनकी बणाउ पटरैणी
मै अपणे रै धरम तै ना जैणी
तेरे आग लगै महल्लो मै
तेरी मरियो इकसठ रैणी ..

कुंवर सत्यम.

यह गीत मेरी पुस्तक " खादर संस्कृति" का संकलित अंश है. यह भारतीय कोपी राइट एक्ट के अंतर्गत मेरे नाम से सुरक्षित है .इसका किसी भी अन्य रूप में प्रयोग वर्जित है.सन्दर्भ के लिए मेरी लिखित अनुमति आवश्यक है..
धन्यवाद.

Tuesday, September 27, 2011

खादर हास्य लोक गीत-३


खादर हास्य लोक गीत-३

अपणे घरो कधी काम करया ना,
तेरी माँ करवावै सै .
छः सर पक्का धरया पीसणा,
मेरे पै पिसवावै सै ..

चुप हो जा रै गोरी,चुप हो जा ,
चुपकी हो कै सोजा.
कुछ मै पिस्सू कुछ तो पिस्से,
चून रोज का हो जै सै.

आधी रैत पहर का तड़का..
राजा नै चाक्की झोई हे .
सुण चाक्की की घोर बहाण मै,
तैण रिजाई सोई हो.

मेरी सास्सू नै पता चैल्या .
रुक्के देत्ती गई घेर मै,
घरो डरामा हो ऱ्या हो .
बहु सो रई तेरा बेट्टा पिस्से,
चाक्की मै झोट्टा जुड़ ऱ्या हो.

चाल्ली जा रै बदमाश अड़े तै
क्यूँ सोत्ता नगर जगाया रै .
गली गली छिड़ी लड़ाई .
रुक्का रोला हो ऱ्या सै.
भित्तर सै मेरा राजा लिकडया,
चून मै धोला हो ऱ्या सै .
यारी दोस्ती करै मसकरी ,
यु के चाला हो ऱ्या सै.

मेरी बहु कमजोर घणी भाई ,
चाक्की मै झोट्टा जोड्या सै.

कुंवर सत्यम .

This work is a part of my book " Khadar Culture." under publication. All rights are reserved with me. No part of this work can be reproduced in any form..Prior permission of the author is compulsory for any reference.

Monday, September 26, 2011

खादर के हास्य लोकगीत-२


खादर के हास्य लोकगीत-२

मै तो पहर पंजाबी सूंट,
कुए पै जल भरण गई .
मेरे, छोरों मै बैट्ठे भरतार ,
नज़र उसकी मेरे पै पड़ी.
हो या किस छैल की नार ?
चलै रै गजबण डट डट कै..

या उस रै छैल की नार ,
जो पजामा पहरै, नाडा लटकै..
हे मै वापिस घर नै आई ,
सजन तो मिल्या जल-भुन कै.

गोरी जिब रै लड़ाए तेरे लाड ,
सुवाई धोरै हवा कर कै.
आज काट्टूगां तेरी नैड.
बगड़ बिच खडी कर कै.
पिया म्हारा कोई न दोष ,
नाडा तो थारा अब बी लटकै.

कुंवर सत्यम.

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Sunday, September 25, 2011

खादर क्षेत्र के हास्य लोक गीत-1


खादर क्षेत्र के लोग बड़े ही हंसमुख हैं.हंसी-मजाक , ठिठोली यहाँ के खुशहाल जीवन का एक अंग है.यहाँ के लोकगीतों में हास्य की भरमार है, शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर अनेक हास्य गीत महिलाओं द्वारा अक्सर गाये जाते है. कुछ हास्य लोक गीत इस प्रकार है....

९० के दशक से पहले खादर क्षेत्र अल्प विकसित था..गैर खादर क्षेत्र की एक लड़की खादर में ब्याही जाती है.ससुराल से अपने मायके जाकर अपनी सहेलियों को वह अपने अनुभवों के बारे में बताती है..

हे मैंने सुधियाइ  उठ कै पिस्स्या,
ढाई सर की चटणी बणाइ .
खाद्दर मै कोई मत ब्याहियो ...

मैन्ने सोला रोट्टी बणाइ ,
ढाई सर की चटणी बणाइ .
मै सिद्धि इ सरड़क चाल्ली,
मेरे पिच्छे काला कुत्ता.
हे खाद्दर मै ................

मै चारो और लखाई,,
मुझै ढोलू कहीं न दिक्ख्या हे.
उसनै सोला इ रोट्टी खाई,
ढाई सर की चटणी खाई.
ढोलू कै उठया मरोड़ा.
उसनै मुश्किल पकडया बटोडा ..
हे खादर मै...

कुंवर सत्यम..

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