Sunday, September 25, 2011

खादर संस्कृति का प्रतीक "सांझी"

खादर संस्कृति का प्रतीक "सांझी" खादर क्षेत्र में (आश्विन माह ) के नोरते ( नवरात्र) के रूप में मनाया जाता है।
 नो दिन तक लगातार खादर क्षेत्र देवी दुर्गा के लिए गाये जाने वाले लोकगीतों से गुंजायमान रहता है। 
लोक गीतों के माध्यम से दुर्गा-भक्त माँ दुर्गा के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करेंगे. इस दौरान खादर क्षेत्र में विशेष-कर बालिकाओं एवं महिलाओं द्वारा प्रातः एवं सायं माँ दुर्गा की स्तुति की जाती है तथा नवरात्र के नो व्रत रखे जाते है. अंतिम व्रत दुर्गाष्टमी अथवा नवमी को होता है. इस दौरान बालिकाओं एवं महिलाओं द्वारा सुन्दर सान्झियों एवं उसके सैनिकों,चाँद-तारों एवं विभिन्न पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ बनाई जाती है.ये सभी सांझी (माँ दुर्गा ) के सहयोगी के रूप में सांझी के साथ स्थापित किये जाते है. जों बोकर 
 नोरते उगाये जाते हैं.अष्टमी एवं नवमी के दिन ये नोरते बहनों द्वारा अपने भाइयों के कान पर रखे जाते हैं.बदले में भाई अपनी बहनों को पैसे देते है. कुछ सन्यासी भी ऐसा करते हैं.

 इस अवसर पर खादर में देवी दुर्गा के लिए गाये
 जाने वाले लोक गीत इस प्रकार होते है.

 ए या देबी रही पुकार.
 छतर सोन्ने का मांग रही.
या बिंदी रही सजा ,
टिक्का होर मांग रही.
 ए या देबी रही पुकार...
या कुण्डल रही सजा
 झुम्मर होर मांग रही. .
ए या देबी रही पुकार..
 या पेंडिल रही सजा
 कोलिर होर मांग रही...
 ए या देबी रही पुकार..


सांझी की तैयारी
सांझी अर्थात साझी अर्थात सामुहिक अर्थात जो सबकी हो ऐसी मां!
खादर क्षेत्र में दुर्गा।माँ के लिए सांझी शब्द का ही प्रयोग किया जाता रहा है।नवरात्र में जब ग्रामीण क्षेत्र में दुर्गा माँ का पूजन होता है तो वह सांझे भाव से ही किया जाता था।घरों में लड़कियां और बहुए तालाब की मिट्टी से मां दुर्गा का पूरा दरबार बनाकर तैयार करती उनमें खुशियों के रंग भरती और नवरात्र शुरू होने की पूर्व संध्या पर घर के सबसे पवित्र स्थान पर माँ का दरबार सजाती हैं।सांझी दो विधियों से बनाई जाती है:
दीवार पर गाय के गोबर की मदद से चिपकाने के लिए।
पटरी पर बैठने की मुद्रा में दरबार सजाने के लिए।
  सामान्यतः प्रथम विधि ही ज्यादा प्रचलित है। लड़कियां मां के सम्पूर्ण दरबार का निर्माण करती है जिसमे चाँद, तारे,शेर एवं अन्य पशु,पक्षी,टिकली,माँ के आभूषण जिन्हें गहणे कहा जाता है,मां के वस्त्र आदि सब कुछ मिट्टी से बनाकर रंगों से सजाकर जीवट बनाया जाता है।मां के दरबार में दरबार का मनोरंजन करने की दृष्टि से धोलाकिये,बैंड ,बाजा आदि भी मिट्टी से बनाकर बैठाए जाते थे।
मुहल्ले की लड़कियों में सबसे सुंदर सांझी बनाने की होड़ रहती थी।एक दूसरे की सांझी को उनके घर जाकर देखकर आना इन दिनों की एक सामान्य प्रक्रिया बन जाती है।

 रंग भरने की प्रक्रिया:
 अंतिम कनागत (श्राद्ध) अर्थात अमावस्या के दिन तैयार किये गए समस्त सांझी दरबार मे रंग भरने का दिन होता है।सुभं से तैयारी शुरू होकर शाम तक चलती है।प्रातः हर मृण्मूर्ति में खड़िया से सफेद रंग भरकर मूर्ति को आधार रंग प्रदान किया जाता है।इसके दो लाभ है:
1- मूर्ति में रंगों की कम खपत
2- रंगों में चमक उतपन्न हो जाती है

 खड़िया का घोल बनाकर किसी बड़े बर्तन तसले अथवा बाल्टी में लिया जाता है जिसमे सांझी दरबार हेतु तैयार मृण्मूर्तियों को डुबोकर तर किया जाता है जिससे वे सभी भूरे रंग की हो जाती हैं।इसके बाद इन मृण्मूर्तियों को सूखने दिया जाता है।सूखने के बाद सायंकाल तक अन्य रंगों से सजाने के काम होता है। विभिन्न रंगों से सांझी मृण्मूर्तियां गाय के गोबर से चयनित स्थान पर चिपका कर एक मूर्ति का रूप दे दिया जाता है अथवा बैठने की मुद्रा में पटरी पर दरबार सजाकर सांझी की स्थापना की जाती है।इसके बाद पूजा के लिए सांझी दरबार तैयार हो जाता है।
सांझी पूजा:
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सुबह एवं संध्या में विधिवत घर की कन्याएं एवं छोटे बच्चे पूरे उत्साह के साथ सांझी मां की आरती करने के बाद सर्वप्रथम सांझी को भोग लगाते हैं उसके बाद दरबार मे उपस्थित समस्त दरबार गणों को भोग लगाते हैं।आरती के लिए पूरे खादर क्षेत्र में कुछ स्थानीय शब्दों के परिवर्तन के साथ एक जैसी आरतियां ही प्रचलित हैं।
अपने घर मे आरती करने के बाद लड़कियां एवं बच्चे पड़ोस के घरों में भी सांझी आरती में शामिल होकर प्रसाद पाते हैं।इसके लिए वे अपने घर से आरती पात्र एवं उसमे जलता दीपक लेकर ही सामान्यतः पड़ोस में सांझी आरती के लिए जाते हैं।
विसर्जन:
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दुर्गाष्टमी को प्रातःकाल सांझी में के लिए घर में तरह तरह के पकवान सामर्थ्यानुसार साधकों द्वारा बनाये जाते हैं।सांझी की आरती एवं भोग लगाने के बाद सात अथवा नौ कन्याओं को पैर प्रक्षालन(धोने)के बाद तिलक करके भोजन कराया जाता है।कन्याओं को सामर्थ्यानुसार पैसे अथवा उपहार देकर विदा किया जाता है।अगले दिन अर्थात नवमीं को प्रातःकाल सांझी मां की आरती के बाद उनकी विदाई की तैयारी होती है।सांझी मां को उनके दरबार सहित स्थापना स्थल से नजदीकी नदी,राजवाहे अथवा तालाब में विसर्जित किया जाता है।मूर्ति विसर्जन एक सामान्य प्रक्रिया है।जिसे समझना आवश्यक हैं।
क्योंकि मूर्तियां मिट्टी से निर्मित की गई थी।चयनित स्थल पर प्राणप्रतिष्ठा के बाद मां उस स्थल पर भक्तों के बीच उन मूर्तियों के प्रतीक स्वरूप विराजमान रहती है जिसकी भक्त आराधना करते हैं,आरती करते हैं और मां को भोग लगाते है।नवरात्र के अंतिम दिन सांझी मां क्योकि देविलोक प्रस्थान कर जाती हैं अतः उसके बाद वें मूर्तियां मिट्टी तुल्य ही रह जाती है।हिन्दू धर्म की यह मान्यता है कि प्रकृति से जितना लिया है उतना उसे वापस भी करना चाहिए।जिस प्रकार व्यक्ति के शरीर से उसकी सांसे निकल जाने का पश्चात शरीर की कोई अहमियत नही है।सगे सम्बन्धी ही शमसान ले जाकर स्वांस रहित शरीर(मृत शरीर) का दाह संस्कार कर देते हैं, मुस्लिम उसे दफना देते हैं।ठीक उसी प्रकार सांझी मां के प्रस्थान के बाद मिट्टी की यह सांझी स्वरूप मूर्तियां पृकृति को मिट्टी रूप में ही वापस करने के लिए विसर्जित कर दी जाती हैं।जल में विसर्जन इसलिए ताकि वह गलकर उसे गारे के स्वरूप में प्रकृति को प्राप्त हो सके जिस स्वरूप में उसे मूर्ति निर्माण के लिए भक्तों द्वारा प्रकृति से ग्रहण किया गया था।।



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