Saturday, October 21, 2017

अहोई अष्टमी

नवभारत टाइम्स
आचार्य ज्योतिवर्धन शास्त्री

अहोई अष्टमी व्रत कथा
प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपापोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैवयोग से उसी जगह एक सेहू की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल से सेहू के बच्चे को चोट लग गई जिससे सेहू का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था! वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई।

कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात् दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जानबूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अनजाने में उससे एक सेहू के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई।

यह सुनकर आस-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेहू और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्रों की प्राप्ती हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।

वैसे कुछ क्षेत्रों में अहोई अष्टमी की दूसरी कथा भी प्रचलित है, जो मथुरा स्थित राधाकुण्ड में स्नान करने से संतान-सुख की प्राप्ति के संदर्भ में है। इस कथा के अनुसार बहुत समय पहले एक नगर में चन्द्रभान नामक साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका बहुत सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न, सती साध्वी, शीलवन्त चरित्रवान तथा बुद्धिमान थी। उसके यहां कई पुत्र-पुत्रियां हुए परंतु वे सभी बाल अवस्था में ही परलोक सिधार जाते थे। दोनों पति-पत्नी संतान न रह जाने से व्यथित रहते थे। दोनों प्रतिदिन मन में सोचते कि हमारे मर जाने के बाद इस अपार धन-संपदा को कौन संभालेगा।

एक बार उन दोनों ने निश्चय किया कि वनवास जाकर शेष जीवन प्रभु-भक्ति में व्यतीत करें। इस प्रकार दोनों अपना घर-बार त्यागकर वनों की ओर चल दिए। रास्ते में जब थक जाते तो रुक कर थोड़ा विश्राम कर लेते और फिर चल पड़ते। इस प्रकार धीरे-धीरे वे बद्रिका आश्रम के निकट शीतल कुण्ड जा पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने निराहार रह कर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार निराहार व निर्जल रहते हुए उन्हें सात दिन हो गए तो आकाशवाणी हुई कि तुम दोनों प्राणी अपने प्राण मत त्यागो। यह सब दुख तुम्हें तुम्हारे पूर्व पापों से भोगना पड़ा है। यदि तुम्हारी पत्नी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजन करे तो अहोई देवी प्रसन्न होकर साक्षात् दर्शन देंगी। तुम उनसे दीर्घायु पुत्रों का वरदान मांग लेना। व्रत के दिन तुम राधाकुण्ड में स्नान करना।

चन्द्रिका ने आकाशवाणी के बताए अनुसार विधि-विधान से अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजा-अर्चना की और तत्पश्चात राधाकुण्ड में स्नान किया। जब वह स्नान इत्यादि के बाद घर पहंचे तो उस दम्पत्ति को अहोई माता ने साक्षात् दर्शन देकर वर मांगने को कहा। साहूकार दम्पत्ति ने हाथ जोड़कर कहा, "हमारे बच्चे कम आयु में ही परलोक सिधार जाते है। आप हमें बच्चों की दीर्घायु का वरदान दें। "तथास्तु!" कहकर अहोई माता अंतर्ध्यान हो गईं। कुछ समय के बाद साहूकार दम्पत्ति को दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति हुई और वे सुखपूर्वक अपना गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।

वैसे यह भी मान्यता है कि अहोई अष्टमी के दिन पेठे का दान किया जाना चाहिए।

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कार्तिक कृष्ण पक्ष में तिथि त्योहारों की भरमार रहती है जिसमें करवा चौथ और अहोई अष्टमी महिलाओं के द्वारा किए जाने वाले विशेष दो पर्व हैं। जिनको मनाते हुए महिलाएँ जहाँ शास्त्रीय एवं लोक रीतिपूर्वक व्रत उपवास करती हैं वहीं सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा इन्हें उत्सव का रूप प्रदान करती हैं। इन दोनों उत्सवों में जहाँ परिवार के कल्याण की भावना भरी हुई होती है वहीं सास के चरणों को तीर्थ मानकर उनसे आशीर्वाद लेने की प्राचीन परंपरा आज भी दिखाई देती है।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी अहोई अथवा आठें कहलाती है। इस महीने यह व्रत शनिवार 30 अक्टूबर को मनाया जाएगा। वस्तुतः यह व्रत दीपावली से ठीक एस सप्ताह पूर्व आता है। कहा जाता है इस व्रत को संतान वाली स्त्रियाँ करती हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अहोई अष्टमी का व्रत छोटे बच्चों के कल्याण के लिए किया जाता है, जिसमें अहोई देवी के चित्र के साथ सेई और सेई के बच्चों के चित्र भी बनाकर पूजे जाते हैं।

कैसे करें अहोई व्रत :-जिन स्त्रियों वह व्रत करना होता है वह दिनभर उपवास रखती हैं। सायंकाल भक्ति-भावना के साथ दीवार अहोई की पुतली रंग भरकर बनाती हैं। उसी पुतली के पास सेई व सेई के बच्चे भी बनाती हैं। आजकल बाजार से अहोई के बने रंगीन चित्र कागज भी मिलते हैं। उनको लाकर भी पूजा की जा सकती है।

संध्या के समय सूर्यास्त होने के बाद जब तारे निकलने लगते हैं तो अहोई माता की पूजा प्रारंभ होती है। पूजन से पहले जमीन को स्वच्छ करके, पूजा का चौक पूरकर, एक लोटे में जलकर उसे कलश की भांति चौकी के एक कोने पर रखें और भक्ति भाव से पूजा करें। बाल-बच्चों के कल्याण की कामना करें। साथ ही अहोई अष्टमी के व्रत कथा का श्रद्धा भाव से सुनें।

इसमें एक खास बात यह भी है कि पूजा के लिए माताएँ चाँदी की एक अहोई भी बनाती हैं जिसे बोलचाल की भाषा में स्याऊ भी कहते हैं और उसमें चाँदी के दो मोती डालकर विशेष पूजन किया जाता है। जिस प्रकार गले में पहनने के हार में पैंडिल लगा होता है उसी प्रकार चाँदी की अहोई डलवानी चाहिए और डोरे में चाँदी के दाने पिरोने चाहिए। फिर अहोई की रोली, चावल, दूध व भात से पूजा करें।

जल से भरे लोटे पर सातिया बना लें, एक कटोरी में हलवा तथा रुपए का बायना निकालकर रख दें और सात दाने गेहूँ के लेकर अहोई माता की कथा सुनने के बाद अहोई की माला गले में पहन लें, जो बायना निकाल कर रखा है उसे सास की चरण छूकर उन्हें दे दें। इसके बाद चंद्रमा को जल चढ़ाकर भोजन कर व्रत खोलें।

इतना ही नहीं इस व्रत पर धारण की गई माला को दिवाली के बाद किसी शुभ अहोई को गले से उतारकर उसका गुड़ से भोग लगा और जल से छीटें देकर मस्तक झुकाकर रख दें। सास को रोली तिलक लगाकर चरण स्पर्श करते हुए व्रत का उद्यापन करें।

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